पवन ऊर्जा में एशिया की बड़ी छलाँग
अनुमान है कि इस साल पवन ऊर्जा से बनने वाली बिजली 190,000 मेगा वॉट तक पहुँच जाएगी, जबकि दस साल पहले यह सिर्फ 20,000 मेगावॉट थी। इस बढ़ते उत्पादन की वजह इस क्षेत्र में एशिया की प्रगति है। विश्व पवन ऊर्जा संघ ने नए आँकड़े पेश किए हैं। इनके मुताबिक पवन ऊर्जा अब दुनिया के 70 से ज्यादा देशों में इस्तेमाल हो रही है।
विश्व पवन ऊर्जा संघ के महासचिव स्टेफान जैंगर का कहना है कि ऊर्जा के पारंपरिक स्रोतों के दामों का बढ़ना और अस्थिर रहना, जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता और ऊर्जा की बढ़ती माँग, ये कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से लोग अपनी बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए पवन ऊर्जा की ओर रुख कर रहे हैं। इस मामले में एशिया में खासी प्रगति देखने को मिली है।
जैंगर के मुताबिक 'पिछले बीस सालों में एशिया ने पवन ऊर्जा के क्षेत्र में भारी निवेश किया है। हम हम देख सकते हैं कि दुनिया भर में बनाए गए नए पवन टर्बाइनों में 40 प्रतिशत अकेले एशिया में हैं। जाहिर सी बात है कि चीन इस क्षेत्र में सबसे आगे है, जिसने पिछले साल 14,000 मेगावॉट के पवन टर्बाइन स्थापित किए और लगातार चार सालों से चीन ने अपनी पवन ऊर्जा क्षमता को दुगना किया है।'
2009 में चीन ने पवन ऊर्जा से बिजली बनाने के मामले में जर्मनी को पीछे छोड़ दिया और दूसरा स्थान हासिल किया। अमेरिका पहले स्थान पर बना हुआ है।
जैंगर कहते हैं, 'इस समय ऐसा लगता है कि चीन जर्मनी को 200 मेगावॉट से पीछे छोड़ चुका है। महज कुछ ही वर्षों में हासिल की गई यह एक बड़ी सफलता है। चीन पहले पाँचवें स्थान पर था लेकिन अब उसने दूसरे पायदान को हासिल कर लिया है।
जैंगर का कहना है कि कुछ साल पहले चीन ने 2020 तक पवन ऊर्जा से 20 गीगावॉट बिजली बनाने का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य तक वे 2009 में ही पहुँच गए तो अब 2020 तक चीन ने पवन ऊर्जा से 100 गीगावॉट बिजली पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित है।
वैसे पवन ऊर्जा एशिया के लिए नई बात नहीं है। भारत को पवन ऊर्जा के क्षेत्र में काफी अग्रणीय माना जाता है। वहाँ दुनिया का सबसे बड़ा टर्बाइन उत्पादक सुजलौन है, लेकिन ऊर्जा उत्पादन को देखें तो चीन एशिया के लिए एक आदर्श बन गया है जो बाकी एशियाई देशों को पवन ऊर्जा बनाने की प्रेरणा दे रहा है। पाकिस्तान, वियतनाम और फिलीपींस जैसे बहुत से देशों ने अपने विन्डफार्म्स बना लिए हैं। साथ ही इन सभी देशों ने औद्योगिक क्षमता बढ़ाने का काम भी शुरू कर दिया है। वहीं चीन और भारत, दोनों के पास ही बहुत मजबूत व्यवसायिक आधार हैं।
जैंगर का कहना है कि अगर तकनीकी परिस्थितियों को ध्यान में रखें तो एक देश अपनी 30 से 50 प्रतिशत बिजली पवन ऊर्जा, जल ऊर्जा, सौर ऊर्जा और बायोगैस जैसे फिर से उपयोग की जाने वाले स्रोतों की मदद से हासिल कर सकता है।
चीन में विन्डफार्म्स के बढ़ने का मतलब चीन की उत्पादन सुविधाओं का बढ़ना है। विश्व पवन ऊर्जा संघ के प्रवक्ता चियान सोंग का कहना है कि चीन में फिलहाल लगभग 80 विन्ड टर्बाइन उत्पादक हैं।
उनके मुताबिक, 'अभी चीन के ज्यादातर विन्ड टर्बाइन उत्पादक अपनी सामग्री, चीन के पवन किसान को देते हैं, लेकिन पिछले साल से ही बड़े टर्बाईन उत्पादकों ने अपने निर्यात व्यवसाय को बंद कर दिया था और चीन का उत्पादन वैसे ही अच्छा है और यूरोपीय उत्पाद के मुक़ाबले सस्ता भी है।'
विश्व पवन ऊर्जा संघ के मुताबिक़ पवन ऊर्जा बिजली बनाने के लिए काफी सस्ती है। इसी कारण इसकी माँग बढ़ रही है। अब जब चीन इस क्षेत्र में एक जगह हासिल करने में जुटा हुआ है तो वह दिन दूर नहीं जब घर की और चीजों की तरह बिजली भी 'मेड इन चाइना' होगी।
गुरुवार, 11 मार्च 2010
रविवार, 7 मार्च 2010
कहानी
एक बच्चा कैसे खुश हुआ
ओमप्रकाश बंछोर
माँ बत्तख आश्चर्य से सोच रही थी कि क्या मुझसे अंडों को गिनने में कोई गलती हो गई? पर माँ बत्तख और ज्यादा कुछ सोचती इससे पहले सातवें अंडे से एक बच्चा बाहर निकल आया। यह सातवाँ बच्चा बाकी छः बच्चों से अलग था। भूरे पंख और आँखों पर पीलापन। बाकी छः नन्हे बत्तख बच्चों के बीच यह बड़ा अजीब लग रहा था। अपने इस अजीब से बच्चे को लेकर माँ बत्तख के मन में एक चिंता जरूर थी। माँ बत्तख जब अपने सातवें बच्चे को देखती तो उसे विश्वास नहीं होता कि यह उसी का बच्चा है। यह सातवाँ बच्चा बाकी के बीच बहुत अजीब दिखता था। इसकी आदतें भी अलग थी। खाना भी वह अपने बाकी भाइयों से ज्यादा खाता था और वह उनकी तुलना में उसका शरीर भी ज्यादा बड़ा था। दिन जैसे-जैसे बीत रहे थे सातवाँ बच्चा खुद को अलग-थलग पाने लगा। कोई भी भाई उसके साथ खेलना पसंद नहीं करता था। फार्म में बाकी सारे लोग उसे देखकर उसकी हँसी उड़ाते थे। हालाँकि माँ बत्तख अपने इस बच्चे को खुश करने की बहुत कोशिश करती थी, पर बाकी सभी लोगों के व्यवहार से वह उदास और दुखी रहने लगा। कभी-कभी माँ बत्तख कहती भी कि प्यारे बच्चे, तुम दूसरों से इतने अलग क्यों हो। यह सुनकर बच्चे को और भी बुरा लगता। कभी-कभी वह खुद से भी पूछता कि मैं दूसरों से इतना अलग क्यों हूँ। कोई भी तो मुझे पसंद नहीं करता है। उसे लगने लगा कि किसी को भी उसकी परवाह नहीं है।
फिर एक दिन सुबह वह बच्चा अपने फार्म से भाग निकला। एक पोखर के किनारे कुछ पक्षियों से उसने पूछा कि क्या तुमने कभी किसी भूरे पंख वाले बत्तख को देखा है। सभी ने मना करते हुए कहा कि हमने कभी तुम्हारे जैसा भद्दा बत्तख नहीं देखा। यह सुनकर भी उस बच्चे ने अपना धैर्य नहीं खोया। वह दूसरे पोखर गया। पर वहाँ भी उसे इसी तरह का जवाब मिला। यहाँ किसी ने उसे चेताया भी कि इंसानों से खबरदार रहना क्योंकि तुम उनकी बंदूक का निशाना बन सकते हो।
बच्चे को अहसास हुआ कि फार्म से भागकर उसने गलती की है। भटकते-भटकते एक दिन वह एक गाँव में किसी बूढ़ी महिला के पास पहुँच गया। महिला को दिखाई कम देता था। तो उसने इसे बत्तख समझकर अंडों के लालच में पकड़ लिया। पर इस बच्चे ने एक भी अंडा नहीं दिया। यह देखकर बुढ़िया के यहाँ रहने वाली मुर्गी ने बच्चे को बताया कि अगर बुढ़िया को अंडे नहीं मिले तो वह तुम्हारी गर्दन मरोड़ देगी। बच्चा यह सुनकर बहुत डर गया। फिर रात के वक्त वह बुढ़िया के यहाँ से भी भाग निकला।
एक बार फिर से वह अकेला था और उदास भी। उसे प्यार करने वाला कोई भी नहीं था। उसने खुद से कहा कि अगर कोई भी मुझे प्यार नहीं करता तो मैं सबसे छिपकर रहूँगा। यहाँ खाने को भी कोई कमी नहीं है। यह सोचकर उसने खुद को धीरज बँधाया। फिर वह जहाँ था वहाँ से उसने एक सुबह कुछ सुंदर हँसों को उड़ान भरकर दक्षिण की ओर जाते हुए देखा। सफेद और सुराहीदार गर्दन वाले पक्षियों को देखकर बहुत दिनों बाद बच्चे के चेहरे पर खुशी आई। उन पक्षियों को देखकर बच्चे ने सोचा कि मैं एक दिन के लिए भी अगर इनकी तरह सुंदर हो जाऊँ तो सब मुझे पसंद करने लगेंगे।
सर्दियाँ बहुत तेज हुई तो जहाँ यह नन्हा बच्चा रह रहा था, उस जगह दाना-पानी कम हो गया। खाने की कमी से यह बच्चा कमजोर हो गया। भोजन की तलाश में उसे बाहर निकलना पड़ा। तभी एक किसान की नजर उस पर पड़ी। किसान दयालु था और कुछ महीनों तक बच्चे को किसान ने अपने यहाँ रखकर पाला। कुछ महीने बीते तो वह काफी बड़ा हो गया था।
जब कठिन दिन बीत गए तो किसान ने उस पंछी को एक तालाब में ले जाकर छोड़ दिया। तालाब के पानी में जब उसने अपने-आप को देखा तो वह चकित रह गया। वह बावला हो गया- मैं सुंदर हूँ... मैं सुंदर हूँ...। वाकई वह अब बड़ा हो गया था और सुंदर भी। फिर जब दक्षिण गए हंस वापस उत्तर की तरफ लौटने लगे, तो इसने उन्हें देखा। उन्हें देखते ही इसे खयाल आया कि वह तो बिलकुल उड़ने वाले हंसों की तरह है।
हंसों ने भी अपने इस जोड़ीदार को पहचान लिया और उसे अपने साथ ले लिया। फिर किसी बूढ़े हंस ने उससे पूछा कि इतने दिनों वह कहाँ रहा तो वह बोला कि यह लंबी कहानी है। बाद में सुनाऊँगा। हंसों का यह झुंड एक तालाब के किनारे उतर गया। वहाँ इस सुंदर से हंस को देखकर बच्चे चिल्ला रहे थे कि देखो वह हंस कितना सुंदर लग रहा है। हंस ने यह सुना तो शरमाकर मुस्कुरा दिया। कहानी खत्म।
ओमप्रकाश बंछोर
माँ बत्तख आश्चर्य से सोच रही थी कि क्या मुझसे अंडों को गिनने में कोई गलती हो गई? पर माँ बत्तख और ज्यादा कुछ सोचती इससे पहले सातवें अंडे से एक बच्चा बाहर निकल आया। यह सातवाँ बच्चा बाकी छः बच्चों से अलग था। भूरे पंख और आँखों पर पीलापन। बाकी छः नन्हे बत्तख बच्चों के बीच यह बड़ा अजीब लग रहा था। अपने इस अजीब से बच्चे को लेकर माँ बत्तख के मन में एक चिंता जरूर थी। माँ बत्तख जब अपने सातवें बच्चे को देखती तो उसे विश्वास नहीं होता कि यह उसी का बच्चा है। यह सातवाँ बच्चा बाकी के बीच बहुत अजीब दिखता था। इसकी आदतें भी अलग थी। खाना भी वह अपने बाकी भाइयों से ज्यादा खाता था और वह उनकी तुलना में उसका शरीर भी ज्यादा बड़ा था। दिन जैसे-जैसे बीत रहे थे सातवाँ बच्चा खुद को अलग-थलग पाने लगा। कोई भी भाई उसके साथ खेलना पसंद नहीं करता था। फार्म में बाकी सारे लोग उसे देखकर उसकी हँसी उड़ाते थे। हालाँकि माँ बत्तख अपने इस बच्चे को खुश करने की बहुत कोशिश करती थी, पर बाकी सभी लोगों के व्यवहार से वह उदास और दुखी रहने लगा। कभी-कभी माँ बत्तख कहती भी कि प्यारे बच्चे, तुम दूसरों से इतने अलग क्यों हो। यह सुनकर बच्चे को और भी बुरा लगता। कभी-कभी वह खुद से भी पूछता कि मैं दूसरों से इतना अलग क्यों हूँ। कोई भी तो मुझे पसंद नहीं करता है। उसे लगने लगा कि किसी को भी उसकी परवाह नहीं है।
फिर एक दिन सुबह वह बच्चा अपने फार्म से भाग निकला। एक पोखर के किनारे कुछ पक्षियों से उसने पूछा कि क्या तुमने कभी किसी भूरे पंख वाले बत्तख को देखा है। सभी ने मना करते हुए कहा कि हमने कभी तुम्हारे जैसा भद्दा बत्तख नहीं देखा। यह सुनकर भी उस बच्चे ने अपना धैर्य नहीं खोया। वह दूसरे पोखर गया। पर वहाँ भी उसे इसी तरह का जवाब मिला। यहाँ किसी ने उसे चेताया भी कि इंसानों से खबरदार रहना क्योंकि तुम उनकी बंदूक का निशाना बन सकते हो।
बच्चे को अहसास हुआ कि फार्म से भागकर उसने गलती की है। भटकते-भटकते एक दिन वह एक गाँव में किसी बूढ़ी महिला के पास पहुँच गया। महिला को दिखाई कम देता था। तो उसने इसे बत्तख समझकर अंडों के लालच में पकड़ लिया। पर इस बच्चे ने एक भी अंडा नहीं दिया। यह देखकर बुढ़िया के यहाँ रहने वाली मुर्गी ने बच्चे को बताया कि अगर बुढ़िया को अंडे नहीं मिले तो वह तुम्हारी गर्दन मरोड़ देगी। बच्चा यह सुनकर बहुत डर गया। फिर रात के वक्त वह बुढ़िया के यहाँ से भी भाग निकला।
एक बार फिर से वह अकेला था और उदास भी। उसे प्यार करने वाला कोई भी नहीं था। उसने खुद से कहा कि अगर कोई भी मुझे प्यार नहीं करता तो मैं सबसे छिपकर रहूँगा। यहाँ खाने को भी कोई कमी नहीं है। यह सोचकर उसने खुद को धीरज बँधाया। फिर वह जहाँ था वहाँ से उसने एक सुबह कुछ सुंदर हँसों को उड़ान भरकर दक्षिण की ओर जाते हुए देखा। सफेद और सुराहीदार गर्दन वाले पक्षियों को देखकर बहुत दिनों बाद बच्चे के चेहरे पर खुशी आई। उन पक्षियों को देखकर बच्चे ने सोचा कि मैं एक दिन के लिए भी अगर इनकी तरह सुंदर हो जाऊँ तो सब मुझे पसंद करने लगेंगे।
सर्दियाँ बहुत तेज हुई तो जहाँ यह नन्हा बच्चा रह रहा था, उस जगह दाना-पानी कम हो गया। खाने की कमी से यह बच्चा कमजोर हो गया। भोजन की तलाश में उसे बाहर निकलना पड़ा। तभी एक किसान की नजर उस पर पड़ी। किसान दयालु था और कुछ महीनों तक बच्चे को किसान ने अपने यहाँ रखकर पाला। कुछ महीने बीते तो वह काफी बड़ा हो गया था।
जब कठिन दिन बीत गए तो किसान ने उस पंछी को एक तालाब में ले जाकर छोड़ दिया। तालाब के पानी में जब उसने अपने-आप को देखा तो वह चकित रह गया। वह बावला हो गया- मैं सुंदर हूँ... मैं सुंदर हूँ...। वाकई वह अब बड़ा हो गया था और सुंदर भी। फिर जब दक्षिण गए हंस वापस उत्तर की तरफ लौटने लगे, तो इसने उन्हें देखा। उन्हें देखते ही इसे खयाल आया कि वह तो बिलकुल उड़ने वाले हंसों की तरह है।
हंसों ने भी अपने इस जोड़ीदार को पहचान लिया और उसे अपने साथ ले लिया। फिर किसी बूढ़े हंस ने उससे पूछा कि इतने दिनों वह कहाँ रहा तो वह बोला कि यह लंबी कहानी है। बाद में सुनाऊँगा। हंसों का यह झुंड एक तालाब के किनारे उतर गया। वहाँ इस सुंदर से हंस को देखकर बच्चे चिल्ला रहे थे कि देखो वह हंस कितना सुंदर लग रहा है। हंस ने यह सुना तो शरमाकर मुस्कुरा दिया। कहानी खत्म।
चुटकुले
चुटकुले
लल्लू (प्रेमिका से) : मैं आज तुमसे हर चीज शेयर करना चाहता हूँ।
प्रेमिका : चलो बैंक अकाउंट से शुरू करते हैं।
पुत्र (लल्लू से) : पिताजी नेताओं के कपड़ों का रंग सफेद क्यों होता है?
लल्लू : बेटा, ताकि दल बदलने पर भी कपड़े न बदलने पड़ें।
लल्लू डॉक्टर (कल्लू से) : देखो वो रही मेरी प्रेमिका।
कल्लू : तुम उससे शादी क्यों नहीं कर लेते?
लल्लू डॉक्टर : कर तो लूँ, पर मेरा बड़ा नुकसान हो जाएगा। वह करोड़पति बाप की इकलौती बेटी है और सिर्फ मुझसे ही इलाज करवाती है।
संता (बंता बॉस से) : बॉस मुझे छुट्टी चाहिए।
बंता : क्यों?
संता : मेरी फैमिली पेड़ से गिर गई है।
बंता : पूरी फैमिली पेड़ पर क्या कर रही थी?
संता : सर, हमारे यहाँ घरवाली को ही फैमिली कहते हैं।
नौकरानी (मालकिन से) : मेमसाब, जल्दी आइए। पड़ोस की तीन औरतें बाहर बाहर आपकी सास की पिटाई कर रही हैं। मालकिन गैलरी में आकर देखने लगी।
नौकरानी : आप उनकी मदद करने नहीं जाएँगी?
मालकिन : नहीं! तीन ही काफी हैं।
लल्लू (प्रेमिका से) : मैं आज तुमसे हर चीज शेयर करना चाहता हूँ।
प्रेमिका : चलो बैंक अकाउंट से शुरू करते हैं।
पुत्र (लल्लू से) : पिताजी नेताओं के कपड़ों का रंग सफेद क्यों होता है?
लल्लू : बेटा, ताकि दल बदलने पर भी कपड़े न बदलने पड़ें।
लल्लू डॉक्टर (कल्लू से) : देखो वो रही मेरी प्रेमिका।
कल्लू : तुम उससे शादी क्यों नहीं कर लेते?
लल्लू डॉक्टर : कर तो लूँ, पर मेरा बड़ा नुकसान हो जाएगा। वह करोड़पति बाप की इकलौती बेटी है और सिर्फ मुझसे ही इलाज करवाती है।
संता (बंता बॉस से) : बॉस मुझे छुट्टी चाहिए।
बंता : क्यों?
संता : मेरी फैमिली पेड़ से गिर गई है।
बंता : पूरी फैमिली पेड़ पर क्या कर रही थी?
संता : सर, हमारे यहाँ घरवाली को ही फैमिली कहते हैं।
नौकरानी (मालकिन से) : मेमसाब, जल्दी आइए। पड़ोस की तीन औरतें बाहर बाहर आपकी सास की पिटाई कर रही हैं। मालकिन गैलरी में आकर देखने लगी।
नौकरानी : आप उनकी मदद करने नहीं जाएँगी?
मालकिन : नहीं! तीन ही काफी हैं।
आलेख
मातृभाषाओं के विलुप्त होने का खतरा
अरुण बंछोर
जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने अपने अनुसंधान कार्य से भारत के भाषा और संस्कृति संबंधी तथ्यों से जिस तरह समाज को परिचित कराया था, उसी तर्ज पर अब गहन प्रयास किए जाने की जरूरत है क्योंकि हर पखवाड़े एक भाषा मर रही हैं और सरकार की तरफ से इस दिशा में कोई खास कोशिश नहीं की जा रही।
कई आदिवासी भाषाएँ उपेक्षा की शिकार हैं और लगातार विलुप्त हो रही हैं। नेशनल ज्योग्राफिक सोसाइटी और लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेस के अनुसार प्रत्येक पखवाड़े एक भाषा की मृत्यु हो रही है।सन 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली सात हजार से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो सकती हैं। उनमें से कई के बारे में तो रिकॉर्ड भी नहीं है। एक भाषा की मौत सिर्फ एक भाषा की ही मौत नहीं होती, बल्कि उसके साथ ही उस भाषा का ज्ञान भंडार, इतिहास, संस्कृति और उससे जुड़े तमाम तथ्य और मनुष्य भी इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं।भाषा विज्ञानी अन्विता अब्बी के अनुसार जिस अत्याधुनिक सभ्यता पर हमें गर्व होता है दरअसल वह झूठा अहम है। भाषाएँ धरोहर हैं और मुख्यधारा में लाने के नाम पर हम आदिम भाषाओं को खोते जा रहे हैं।
अंडमान की भाषाओं पर अनुसंधान कार्य करने वाली इस प्रोफेसर ने कहा कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किये गये इसके दुष्प्रभाव से अंडमान की कई भाषाएँ लुप्त हो गईं।
अंडमान क्षेत्र में 10 भाषाएँ थी । लेकिन धीरे धीरे ये सिमट कर ग्रेट अंडमानी भाषा बन गईं। यह चार भाषाओं से मिलकर बनी है। भारत सरकार ने उन भाषाओं के आँकड़े संग्रह किए हैं जिन्हें 10 हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएँ और 234 मातृभाषाएँ हैं। इस कारण कई भाषाएँ जिनके बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम हैं वे रिकार्ड में भी नहीं आ पाती। आदिवासियों की भाषाएँ बहुत उन्नत हैं। उसमें पारंपरिक ज्ञान का खजाना है। शहरीकरण के कारण ये आदिम भाषाएँ लुप्तप्राय हो रही हैं।
सरकार जहाँ राजभाषा की नीति के तहत हिंदी को प्रोत्साहन जारी रखे हुए है वहीं, आदिवासियों की भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं। इस दिशा में भी प्रयास किए जाने की जरूरत है ।
समय आ गया है कि सरकार स्कूलों में विभिन्न चरणों में चार स्तरीय भाषा नीति का क्रियान्वयन करे। इससे छात्रों की स्कूल छोड़ने की दर में कमी आएगी। प्रतिस्पर्धा के दौर में अपनी मातृभाषा को लेकर जो हीन भावना है वह ऐसी सकारात्मक नीति से समाप्त होगी। जनवरी में अंडमान क्षेत्र की एक भाषा ‘बो’ बोलने वाली अंतिम महिला के निधन के साथ यह भाषा भी विलुप्त हो गई।
अरुण बंछोर
जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने अपने अनुसंधान कार्य से भारत के भाषा और संस्कृति संबंधी तथ्यों से जिस तरह समाज को परिचित कराया था, उसी तर्ज पर अब गहन प्रयास किए जाने की जरूरत है क्योंकि हर पखवाड़े एक भाषा मर रही हैं और सरकार की तरफ से इस दिशा में कोई खास कोशिश नहीं की जा रही।
कई आदिवासी भाषाएँ उपेक्षा की शिकार हैं और लगातार विलुप्त हो रही हैं। नेशनल ज्योग्राफिक सोसाइटी और लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेस के अनुसार प्रत्येक पखवाड़े एक भाषा की मृत्यु हो रही है।सन 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली सात हजार से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो सकती हैं। उनमें से कई के बारे में तो रिकॉर्ड भी नहीं है। एक भाषा की मौत सिर्फ एक भाषा की ही मौत नहीं होती, बल्कि उसके साथ ही उस भाषा का ज्ञान भंडार, इतिहास, संस्कृति और उससे जुड़े तमाम तथ्य और मनुष्य भी इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं।भाषा विज्ञानी अन्विता अब्बी के अनुसार जिस अत्याधुनिक सभ्यता पर हमें गर्व होता है दरअसल वह झूठा अहम है। भाषाएँ धरोहर हैं और मुख्यधारा में लाने के नाम पर हम आदिम भाषाओं को खोते जा रहे हैं।
अंडमान की भाषाओं पर अनुसंधान कार्य करने वाली इस प्रोफेसर ने कहा कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किये गये इसके दुष्प्रभाव से अंडमान की कई भाषाएँ लुप्त हो गईं।
अंडमान क्षेत्र में 10 भाषाएँ थी । लेकिन धीरे धीरे ये सिमट कर ग्रेट अंडमानी भाषा बन गईं। यह चार भाषाओं से मिलकर बनी है। भारत सरकार ने उन भाषाओं के आँकड़े संग्रह किए हैं जिन्हें 10 हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएँ और 234 मातृभाषाएँ हैं। इस कारण कई भाषाएँ जिनके बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम हैं वे रिकार्ड में भी नहीं आ पाती। आदिवासियों की भाषाएँ बहुत उन्नत हैं। उसमें पारंपरिक ज्ञान का खजाना है। शहरीकरण के कारण ये आदिम भाषाएँ लुप्तप्राय हो रही हैं।
सरकार जहाँ राजभाषा की नीति के तहत हिंदी को प्रोत्साहन जारी रखे हुए है वहीं, आदिवासियों की भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं। इस दिशा में भी प्रयास किए जाने की जरूरत है ।
समय आ गया है कि सरकार स्कूलों में विभिन्न चरणों में चार स्तरीय भाषा नीति का क्रियान्वयन करे। इससे छात्रों की स्कूल छोड़ने की दर में कमी आएगी। प्रतिस्पर्धा के दौर में अपनी मातृभाषा को लेकर जो हीन भावना है वह ऐसी सकारात्मक नीति से समाप्त होगी। जनवरी में अंडमान क्षेत्र की एक भाषा ‘बो’ बोलने वाली अंतिम महिला के निधन के साथ यह भाषा भी विलुप्त हो गई।
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